Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


पापी पेटः

(3)
उधर कोतवाल बख्तावर सिंह का बुरा हाल था। मारे रंज के उनका सिर दुखने लगा था। बख्तावर सिंह राजपूत थे। उन्होंने टॉड का राजस्थान पढ़ा था । राजपूतों की वीरता की फड़काने-वाली कहानियाँ उन्हें याद थीं। चित्तौड़ के जौहर, जयमल और फत्ता के आत्म-बलिदान, और राणा प्रताप की बहादुरी के चित्र उनके दिमाग़ में रह-रह के चमक उठते थे। सोचते थे कि मैं समस्त राजपूत जाति की वीरता का वारिस हूँ। उनका सदियों का इकठ्ठा किया हुआ गौरव मुझे प्राप्त है। मेरे पूर्वजों ने कभी निहत्थों पर शस्त्र नहीं चलाए, किन्तु मैंने आज यह क्या कर डाला? ऐसे मारने से तो मर जाना अच्छा। पर पापी पेट जो न करावे सो थोड़ा।
इसी संकल्प-विकल्प में पड़कर उन्होंने रात को भोजन भी नहीं किया। आखिर भोजन करते भी तो कैसे? उस घायल बच्चे का रक्तरंजित कोमल शरीर, उसकी सकरुण चीत्कार और उसकी हृदय को पिघला देनेवाली बेधक दृष्टि का चित्र उनकी आँखों के सामने रह-रहकर खिंच जाता था। उसकी याद उनके हृदय को टुकड़े-टुकड़े किए डालती थी। इस प्रकार दुखते हुए हृदय को दबाकर वे कब सो गए, कौन जाने?
सवेरे उठने पर उन्हें याद आई कि कल ही जो उन्हें तनखाह के तीन सौ रुपये मिले थे उसे वे कोट की जेब में ही रखकर सो गए थे। कहीं किसी ने निकाल न लिये हों इस ख्याल से झटपट उन्होंने कोट की जेब में हाथ डाला और नोट निकाल कर गिनने लगे। एक-एक करके गिने, सौ-सौ के तीन नोट थे। उन पर सम्राट की तसवीर बनी थी और गवर्नमेन्ट की तरफ़ से किसी के हस्ताक्षर पर यह लिखा था कि “मैं माँगते ही एक सौ रुपया देने का वायदा करता हूँ” रुक्का इन्दुल तलब प्रॉमिसरी नोट-माँगते ही एक सौ रुपये! इसी प्रकार एक, दो, तीन, एक ही महीने में तीन सौ!! एक वर्ष में छत्तीस सौ, तीन हजार छै सौ; तीस वर्ष में एक लाख आठ हजार, हर साल तरक्की मिलेगी, फिर तीस साल के बाद पेन्शन और ऊपर से!! इसी उधेड़-बुन में थे कि इतने ही में टेलीफोन की घंटी बजी। वह चट से टेलीफोन के पास गए बोले “हल्लो”, उधर से आवाज आई “डी० एस० पी० और आप कौन हैं?' इन्होंने कहा 'शहर कोतवाल का अधिकार पूर्ण शब्द उनके कानों में गूंज गया। उधर से फिर आवाज आई 'अच्छा तो कोतवाल साहब! आज 11 बजे जेल के भीतर कल के गिरफ़्तार-शुदा कैदियों का मुकदमा होगा। उसमें आपकी गवाही होगी। आप ठीक 11 बजे जेल पर पहुँच जाइये।' कोतवाल साहब ने कहा, 'बहुत अच्छा।'
अब कोतवाल साहब अपने दफ़तर के काम में लग गए। आफिस में पहुँचते ही उनका रोज़ की ही तरह कुड़-कुड़ाना शुरू हो गया। कोतवाली में काम बहुत रहता है, बड़ा शहर है दिन भर काम करते-करते पिसे जाते हैं। एड़ी चोटी का पसीना एक हो जाता है। खाने तक की फुरसत नहीं मिलती। चौबीसों घंटे गुलामी बजानी पड़ती है, तब कहीं तीन सौ रुपल्ली मिलते हैं। तीन सौ में होता ही क्या है? आजकल तो पाँच सौ से कम में कोई इज्जतदार आदमी रह ही नहीं सकता। इसी के लिए झूठ, सच, अन्याय, अत्याचार क्या-क्या नहीं करना पड़ता है पर उपाय भी तो कुछ नहीं है। इस छै फिट के शरीर को कायम रखने के लिए पेट में तो कुछ झोंकना ही पड़ेगा। क्या ही अच्छा होता यदि भगवान् पेट न बनाता।' इन्हीं विचारों में समय हो गया और कोतवाल साहब ठीक 11 बजे गवाही देने के लिए जेल को चल दिए।

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